ईस्टर की छुट्टियों से तीन रोज़ पहले।
क्लास में क़दम रखा तो तुम्हारी महक तैर गई, जैसे उस रोज़ तुम्हारे हाथों से वह सादा फूल गिर पड़ा था क्लास मैं क़दम रखते हुए। तुम्हारा सादा दुपट्टा उसके हिस्सों को समेटने में किवाड़ से उलझ कर चिर गया था।
वह किवाड़ अब भी चरमराता है।
और उस बेंच पर अब भी उतनी ही धूल जमी पड़ी है जैसे हमारे रिश्ते में।
मैं सफ़ा करके बैठ गया। पास की खाली सीट कुछ नहीं बोली। पहचानती थी मुझे शायद।
क्लास का जायज़ा लिया तो हर चेहरा अजनबी था, मेरे बेटी का छोड़कर। वह वैसे ही घबराई, सकुचाई बैठी थी मुझे
पकड़कर जैसे तुम उस दिन आफ्टर-क्लास बैठी थीं। मैंने मुस्कुराकर उसे थपथपाया तो वह और सिमट गयी। इन टीचरों का डर तुम्हारी तरह है। कभी दिल से नहीं जाता।
वह झालारें अपनी जगह खो चुकी हैं। खिड़कियाँ खुलती नहीं है क्लासों में आजकल, ना पंखे होते हैं। सोचता हूँ, इन वातानुकूलित कक्षाओं में बच्चे पनपते कैसे होंगे? क्या कोई पौधा बंद कमरों में पेड़ बन सकता है? पता नहीं। उन्हीं खिड़कियों की जवानी में और पंखे की रवानी में, मैंने काफ़ी पन्ने चुराए थे तुम्हारी केमिस्ट्री की किताब से। केमिस्ट्री तभी शुरू हुई थी हमारी। सुकून देती थीं केमिस्ट्री, खिड़कियाँ और पंखे। बेटी की केमिस्ट्री टीचर से मिलने आया हूँ। मेरी बेटी भी केमिस्ट्री में फ़ेल हो गयी।
स्कूलों में यह मेज़ और दराज़ें भी प्लास्टिक की होती है इन दिनों। जैसे इंसां। बच्चे तो आईना होते हैं। जो देखते हैं, सो फेंकते हैं। याद है तुमको, उन लकड़ी की मेज़ों पे जो हम तबले बजाते थे अंताक्षरी खेलते वक़्त? इस काल के बच्चे वह ताल नहीं बूझेंगे। कौन सा था मेरा वाला गाना जो अमूमन तुम्हारी ओर देखकर गुनगुनाता था मैं?
हँसें तो दो गालों में भँवर पड़ा करते थे,
जहाँ तेरे पैरों के कंवल गिरा करते थे….
हाँ, यहीं गाना था।
छोड़ आए हम वह गलियाँ…
कितने? कुछ पंद्रह साल के रहे होंगे हम जब कलकत्ते के पेराडाइज़ सिनेमाघर में माचिस देखी थी। इक्कीस रुपए के टिकट
थे रीयर स्टाल के। वह सुगबुग़ाहटें दाएँ कान का रस्ते लिए दिल में ऐसी हरारत पैदा करती थीं जैसे काश्मीर के पेराडाइज़ में
कहंवा मिला हो। काश।
(प्लीज़ अब यह याद मत दिलाना के कैसे घर आकर पापा ने मेरा रीयर सुजा दिया था, रीयर स्टाल की बदौलत। मैं इितहास
में शायद पहला बच्चा रहा होऊँगा जो ख़ुद चार दिन क्लास में खड़ा रहा, टीचर कारण पूछती रही और अनारकली हँसती रही।)
तुम्हारी हँसी क्या अब भी वैसी ही है?
पता है, अपने स्कूल के अब क़ाफ़ी चोंचलें हो चले हैं। कैंटीन, स्विमिंग पूल, वॉटर डिस्पेन्सर, जिम फ़लाना फ़लाना। जैसे मॉल ने मंडियों का स्थान ले लिया हो। अपना सा नहीं लगता। वैसा अपना जैसे तुम्हारा टिफ़िन खाकर लगता था। जैसे बारिश में फ़ुट्बॉल ग्राउंड के कीचड़ में हम छपाके लगाते थे। जैसे हम चुल्लु में पानी बाँटते थे। वैसा जैसे उस पेड़ के तले बैठकर हम अपनी दुनिया बनाते थे। मेरी बेटी ने वह पेड़ नहीं देखा जिस पर तुम्हारा नाम खोदा था मैंने। उसी पेड़ को काटकर जिम बनाया गया है।
आते वक़्त मिस्टर हुसैन टकरा गए। वही, अपने प्यारे स्पोर्ट्स टीचर। जिनके पीरीयड में हम पी.टी. की बजाय टी.पी. किया
करते थे। टाइम पास। कितने घरोंदे बनाए थे मिट्टी के। कितनी मिट्टी डाली एक दूसरे पर। छोड़ो, मिट्टी डालो इन बातों पर।
जो भी हो, क्या पास होता था वह टाइम। हैं ना? कैसे हमारा टाइम पास हो गया, पता ही नहीं चला। इक्कीस साल हो गए
मिले। उस इक्कीस रुपए के सिनेमा टिकट की तरह।
मिस्टर टोप्पो की टोपी और मशहूर गांधीवादी ऐनक अब गुज़रने के कगार पर है। उन्हीं की तरह। अरे, वही कम्प्यूटर वाले सर।
स्कूल में कम्प्यूटर्ज़ नए नए आए थे तब। याद है ना? मैं गणित वाले तीन की बजाय दिल वाला तीन बनाता था तुम्हें रिझाने के
इरादे से और टोप्पो के टोकते ही अधूरा रह जाता था हार्ट-शेप। जैसे अपन रह गए।
निकलते निकलते मिस्टर फ़र्नैंडेज़ भी मिले। अपने खुर्रांट क्लास टीचर। रूमाल उठवाकर अब भी वैसे ही बेंत लगाते हैं, मोटू सर। पर देखता हूँ के आजकल के माँ-बाप इस दर्ज़े का अनुशासन बर्दाश्त नहीं करते और शिकायत दर्ज़ करा देते हैं जिसकी बुनियाद पर टीचर्ज़ को आगाह कर दिया जाता है। कुछ तो अपने बच्चों का स्कूल ही बदलवा देते हैं।
पता नहीं मेरा क्यों बदलवाया गया था। वैसे, मेरी बेटी मेरे स्कूल में ही पढ़ेगी। केमिस्ट्री में फ़ेल होने से ज़िन्दगी ख़त्म नहीं हो
जाती जैसे मेरी कर दी गयी थी।
तुम्हारे सफ़ेद रूमाल पर लाल स्याही से सिर्फ़ तीन शब्द ही तो लिख भेजे थे मैंने। सफ़ेद-लाल से तो शाखा-पोला भी बनता है।
पर उस लाल रंग में मेरे लहू से ज़्यादा अपना ग़ुस्सा दिखा उन सबको।
उस रोज़ यही हुआ था। पापा के साथ।
तीन रोज़ पहले स्कूल से बुलावा आया था।
ईस्टर की छुट्टियों से तीन रोज़ पहले।